क्या पुरुष होना एक अभिशाप है ? एक पुरुष की व्यथा कथा
क्या पुरुष होना एक अभिशाप है ?
क्या पुरुष होना एक अभिशाप है ?
वैसे तो मैंने अपने जीवन काल में कई जगह पर देखा और पाया है कि यदि हम पुरुष न होकर एक महिला या सदैव के लिए एक बच्चे होते तो तमाम जगहों पर हम अपमानित, छोटा और दुखी होने से बच सकते थे, कहने को तो पूरी दुनिया यह कहती है कि महिला और पुरुष एक समान है परन्तु मैंने अपने सार्वजानिक जीवन में पाया है और आप भी मेरे विचारों से सहमत होंगे कि पुरुष होना अपने आप में बहुत बड़ा चैलेंज है, और सिर्फ पुरुष होने के नाते आपको बार बार सार्वजानिक जीवन में नीचे देखना पड़ता है, आपको अपमानित महसूस कराया जाता है, कभी कभी आपको महसूस कराया जाता है जैसे आप कुछ हो ही न, आपका रहना न रहना एक बराबर है जैसे कि आपका पुरुष होना ही एक अभिशाप हो।
उदाहरण के लिए यदि आप कहीं किसी गार्डन में बस या ट्रैन में अपनी शीट पर बैठे हों और कोई महिला आ जाये और पास में खड़ी हो जाये तो आस पास के तमाम लोग आप को ऐसे घूरने लगेंगे कि जैसे वो आपको खा जायेंगे और तब तक घूरेंगे जब तक कि आप अपनी शीट छोड़ कर उठ नहीं जाते ।
दूसरा उदाहरण यदि आप एक महिला है और आप हज़ारों लाखों कि भीड़ में स्लीवलेस, डीपनैक या कितनी भी छोटी और टाइट परिधान पहन कर आ जाएँ लोग बाग़ आपके हॉटनेस के कसीदे पढ़ते नज़र आएंगे क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या महिलाएं क्या इंटलेक्चुअल, कोई कसीदे पढ़ने में पीछे नहीं रहेगा, वही दूसरी तरफ एक पुरुष चाहे अपनी गरीबी और लाचारी के कारण ही क्यों न हो, छोटे, फटे और अधनंगे परिधान पहन कर बाहर निकल जाये तो किसी भी सभ्य समाज में उसको स्वीकार नहीं किया जायेगा।
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ताज़ा उदाहरण लखनऊ के प्रसिद्ध सिटी मांटेसरी स्कूल (CMS) का है मैं अपने छोटी बिटिया के रिपोर्ट कार्ड डिस्ट्रीब्यूशन और एनुअल फंक्शन में गया था वहां पर भी मुझे गजब का महिला और पुरुष में डिस्क्रिमिनेशन दिखा, ऑडिटोरियम हॉल में महिलाओं बच्चों और बूढ़ों के साथ साथ अच्छी खासी संख्या में पुरुष भी मौजूद थे, परन्तु 5 घंटे लम्बे चले प्रोग्राम में एक से बढ़ कर एक प्रोग्राम दिखाए गए, बार बार Mother को कॉन्ग्रैचुलेट किया गया उनकी भूमिका को कोरोना काल में सराहा गया, उनको मंच पर बुला कर गेंदे के फूलों की माला पहनाई गई, और उनसे दीप प्रज्ज्वलित कराये गए, उनके नृत्य के साथ उनका फोटोसेशन भी हुआ, जो बुजुर्ग दादा दादी थे उनको भी सम्मान के लायक समझा गया ।
परन्तु यदि किसी एक को कोई तवज्जो नहीं दी गई तो वह थे पुरुष, किसी एक को एक बार भी कॉन्ग्रैचुलेट नहीं किया गया तो वह थे पुरुष, ध्यान देने वाली बात यह है कि ये वही पुरुष थे जो उस सभागार में अपने परिवार के लोगों को ले कर पहुंचे थे, ये वही पुरुष थे जो अपने पत्नी बच्चों और बुजुर्गों के लिए दौड़ दौड़ कर बाहर से पानी बिस्किट और चाय ला रहे थे ताकी यह प्रोग्राम सफल हो सके, ये वही पुरुष थे जो कोरोना काल में काम धंधे सब बंद थे, पैसे नहीं थे और इन मॉम लोगो के द्वारा थमाई गई लिस्ट के सामान लाने के लिए बाहर निकले और पुलिस कि लाठियां खाई फिर भी बिना उफ़ किये हर जरुरत पूरी की, कंप्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट, ड्रेस , कॉपी, किताब और क्राफ्ट फिर भी इनके योगदान को सराहना योग्य नहीं समझा गया।
मैं यह शिकायत कभी नहीं करता यदि यह आयोजन किसी ऐरे ग़ैरे ने किया होता, परन्तु जब उस सभा में मैंने एक से बढ़ कर एक प्रबुद्ध, और राजनैतिक व्यक्तिओं को देखता हूँ जो खुद भी एक पुरुष है लेकिन सायद वो लोग अपनी सक्सेस में इतने मदमस्त थे कि उनको समाज के 50% लोगों का यह अपमान, निरादर दिखाई नहीं दिया।
आखिर क्यों ? हम पुरुषों का कसूर क्या है ? चौराहे पर कोई महिला किसी टैक्सी चालक को पीट देती है, कोई लड़की या महिला किसी व्यक्ति पर अमर्यादित व्यवहार का आरोप लगा देती है, जब भी कोई महिला रो धो कर चिल्ला कर कोई भी आरोप किसी पुरुष पर लगाती है तो प्रथम दृष्ट्या पुरुष को गलत मान लिया जाता है आखिर क्यों ? क्या पुरुष का पुरुष होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है ? क्या पुरुष के साथ यह व्यवहार न्यायोचित है ? क्या पुरुष इस समाज का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है ?
हर पुरुष को जाति, रंग, आर्थिक और सामाजिक स्तर को भूल कर, मेरे इस विचार के साथ खड़ा होना होगा और अपने हक़ और सम्मान के लिए आवाज बुलंद करना होगा, अन्यथा इंतज़ार कीजिये अपनी जवानी के ख़तम होने और बुढ़ापा आने का तब आपको दादा के रूप में स्टेज पर बुलाएँगे और सम्मान देंगे।
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नोट- इस लेख को एक व्यंग के रूप में लें, मेरा इरादा किसी के भावनाओ को ठेस पहुंचने का कत्तई नहीं है चाहे मुझे कितना भी ठेस क्यों न लग जाये ।
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